ख़बारों में मोदी पर
छपी रिपोर्ट और विज्ञापन एक जैसे ही लगते हैं. इससे
लगता है कि मोदी भारत के किम इल संग बन गए हैं, जो उत्तर कोरिया के पहले
सर्वोच्च नेता थे. ऐसे नेता जिनसे कोई सवाल नहीं किया जाता.
शुरुआत
में किसी को भी नरेंद्र मोदी से सहानुभूति हो सकती है क्योंकि मीडिया ने
उन्हें एक ऐसे शख़्स के तौर पर दिखाया है, जो बाहरी और एक साधारण चाय वाला
होने के बावजूद भी दिल्ली के लुटियंस किले में दाखिल हुआ.
अब इस काल्पनिक कहानी का आकर्षण बनाए रखने के लिए इन बातों पर बार-बार ज़ोर दिया जाता है.
मीडिया
विरोधाभासी तरीक़े से दोनों बातें कहता है, एक तरफ़ तो वो कहता है कि मोदी
तो नए हैं, इसलिए उनका स्वागत करो, दूसरी तरफ़ वो उन्हें वक्त की पुकार
बताता है.
ऐसा लगता है जैसे 2019 के चुनावों की घोषणा हो चुकी है. ये हालात अमित
शाह को तो ख़ुश कर सकते हैं लेकिन मीडिया की संदेह और आलोचन करने और उसकी
जांच करने की भूमिका को पूरा नहीं करते हैं.
मीडिया इस तरह व्यवहार
करता है जैसे देश में मोदी के सिवा कुछ है ही नहीं. बढ़ा-चढ़ाकर दिखाई जाने
वालीं ये ख़बरें मीडिया पर सवाल उठाती हैं और उसके विश्लेष
ण पर संदेह पैदा करती हैं.
इस बात को साबित करने के लिए तीन-चार मामलों पर गौर करते हैं. पहला
मामला निश्चित तौर पर नोटबंदी से जुड़ा है. मीडिया ने इसे भारत में मनाए जा
रहे एक त्यौहार की तरह दिखाया.
हो सकता है कि मध्यम वर्ग ने शुरुआत
में इसे भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई समझते हुए ख़ुशी मनाई हो. लेकिन,
जल्द ही ये हक़ीक़त उनके सामने आ गई कि नोटबंदी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और
नगदी की ज़रूरत वाले धंधों के ख़िलाफ़ एक लड़ाई थी.
मीडिया लोगों की
परेशानी को अनदेखा करता रहा है. नोटबंदी नाम के इस त्यौहार में मीडिया ने
इन व्यापक दिक्कतों के सामने अपनी आँख बंद रखी.
दूसरा, अगर मीडिया उस वक्त तुरंत नोटबंदी के नुकसान को न देख पाया हो तो
भी वह कम से कम लंबे कुछ वक्त बीतने के बाद तो इसका सटीक विश्लेषण कर ही
सकता था. लेकिन विश्लेषण में की गई ये बेईमानी इसकी रिपोर्टिंग की
अवास्तविकता को दिखाती है. ब विदेश नीति पर गौर करते हैं. नरेंद्र मोदी शिंजो आबे, व्लादीमिर पुतिन
या डोनल्ड ट्रंप के सा
थ खड़े होकर एक बेहद आकर्षक दृश्य पैदा करते हैं और
सभी को मोह लेते हैं. मीडिया भी इसमें भरपूर सहयोग देता है.
लेकिन, इस दौरान मीडिया इन चार देशों के नैतिक ख़ालीपन को देखना भूल जाता है.
नरेंद्र
मोदी यमन, सीरिया और रोहिंग्या मुसलमानों के मसले पर चुप्पी साधे रहते
हैं. एशिया को लेकर उनका विचार तय है. फिर भी मीडिया इसराइली नीति पर सवाल
पूछे बिना इसराइल के मामले में मोदी के सहयोगी की भूमिका निभाता है. रक्षा
सौदों में इसराइल की भागीदारी का स्वागत करता है.
इस तरह अपनी रक्षा पर ज़ोर देने वाले भारत को मीडिया और मध्यम वर्ग की तारीफ़ मिलती है.
अगर गौर करें तो मोदी ने चीन के मामले में तिब्बत को धमकाने और शर्मिंदा
करने के अलावा ज़्यादा कुछ नहीं किया है. बस पाकिस्तान के मामले में थोड़ा
बहुत कुछ हासिल किया है. किन मीडिया विदेश नीति पर गंभीर नहीं दिखता है. इस मामले में मोदी का
वास्तविक आकलन बहुत कम होता है. मीडिया के पास बहुत कम संदेह और सवाल हैं.
हम
पाकिस्तान और चीन पर ख्याली जीत की खुशी मनाते हैं.
जहां मीडिया वास्तविकता दिखाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता था वहां, वो जी-हुज़ूरी
में लगा है और लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से धोखा कर रहा है.
'मॉब
लिंचिंग' को लेकर मोदी के रवैए पर मीडिया का नज़रिया और अधिक शर्मिंदा
करता है. मीडिया मोदी की प्रतिक्रिया को साफ-सुथरा बनाने की कोशिश करता है.
मीडिया के पास कोई अलग नज़रिया न होना वाकई चिंता पैदा करता है. वो शख़्स
जिसने कांग्रेस से कई जवाब मांगे हों वो अब घटनाओं पर न के बराबर ही
प्रतिक्रियाएं दे रहा है. इस पर सवाल तो उठता ही है.
नरेंद्र मोदी
की उपलब्धियों और कमज़ोरियों को लेकर मीडिया के ढुलमुल रवैए के कारण ये पता
लगाना मुश्किल हो जाता है कि विज्ञापन कहां ख़त्म
होता है और मोदी का
संतुलित मूल्यांकन कहां से शुरू होता है. हां तक कि मीडिया असम को लेकर भी चुप है और बस कुछ छुट-पुट विश्लेषण किए
जा रहे हैं. यह नागरिक रजिस्टर को भारत की एक महान परंपरा की तरह दिखा रहा
है.
इन पूरे हालातों के बीच देश में विरोध और मतभेद के लिए जगह बहुत कम रह जाती है.
उम्मीद है कि मीडिया बहुसंख्यकवाद की उंगलियों पर नाचने की बजाए अपनी असली भूमिका में लौटेगा.
मीडिया
ने आपातकाल में एक अलग ही भूमिका निभाई थी. उम्मीद है कि मी
डिया साल के चुनावों से पहले आलोचना और साहस की पत्रकारिता पर फिर से लौटेगा.
यह विरोध और लोकतंत्र का मीडिया पर एक कर्ज है.